गोलेश्वर-कराड गांव में 14-15 अगस्त को मनाया जाता है स्वतंत्रता दिवस, देश के पहले रेसलिंग विजेता के नाम से होता है जश्न
Author: सीमा पाल , 15 Aug 2022
पुणे के गोलेश्वर में स्तिथ कराड गांव में 70 साल पहले 23 साल के खाशाबा दादासाहेब जाधव ने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती (रेसलिंग) में कांस्य पदक जीतकर दुनिया में गांव का नाम रौशन कर दिया। भारत के इस पहले स्पोर्ट्स सुपरस्टार ने दुनिया के रेसलिंग नक्शे पर न सिर्फ भारत का नाम दर्ज कराया, बल्कि देश को जीत की राह भी दिखाई। ददासहऐब जाधव का सपना था कि उनके गांव के लोग रेसलिंग से जुड़े। वहीं अब उनके बेटे रंजीत जाधव अपने पिता के सपने को पूरा करने के प्रयास में जुटे हैं।
खेल जगत में आज अधिकतर बच्चे क्रिकेटर बनना और पैसा कमाना चाहते हैं, लेकिन गोलेश्वर-कराड़ के बच्चे जाधव बनना चाहते हैं। उनकी तमन्ना देश के लिए ओलंपिक पदक लाने की है। जाधव 11 किलोमीटर पैदल चलकर कराड़ के जिस तिलक हाईस्कूल में पढ़ने जाते थे, वहां के 35 छात्र अभी रेसलिंग सीख रहे हैं। इनमें 10 तो राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर खेल रहे हैं।
स्कूल के प्रधानाध्यापक अहिरे जीजी ने बताया कि यहां 10 साल से खाशाबा दादासाहेब के नाम से अकादमी चलाई जा रही है। यहां पूरे कराड़ के बच्चों को ट्रेनिंग दी जाती है। यहां अखाड़े में सुबह-शाम तीन-तीन घंटे की प्रैक्टिस होती है। केडी के बेटे रंजीत जाधव ने इस स्कूल के किसी भी बच्चे के राष्ट्रीय मेडल जीतने पर 25 हजार रुपये का इनाम देने की घोषणा की है।
गोलेश्वर में कराड़ शायद देश का पहला स्थान है, जहां 38 सालों से आजादी का महोत्सव 14 व 15 अगस्त, दो दिन मनाया जाता है। दरअसल, 14 अगस्त की तारीख ओलंपिक एकल गेम में भारत को पहला पदक दिलाने वाले जाधव की पुण्यतिथि है। 1984 में इसी तारीख को उनका निधन हुआ था। यहां के लोग उनके देशप्रेम और जुनून को याद करते हुए दो दिन आजादी का जश्न मनाते हैं। उनके मन में दादासाहेब का सम्मान महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक से कम नहीं है। उनके संघर्ष और उपलब्धि की कहानी स्कूल के कोर्स में भी शामिल की गई है ताकि बच्चे प्रेरित हों। इसी का असर है कि जिस स्कूल में जाधव पढ़ते थे, वहां के 35 बच्चे आज रेसलिंग सीख रहे हैं और नेशनल लेवल तक खेल रहे हैं।
रेसलर दादासाहेब के गांव में चौक-चौराहों पर ओलंपिक लोगो और उनके स्मारक बने हैं। गोलेश्वर में उनके घर को ‘ओलंपिक निवास’ नाम दे दिया गया है। निवास में प्रवेश करते ही महसूस हुआ जैसे हम किसी खास जगह आ गए हैं। 70 साल पहले देश को मिले ओलंपिक मेडल को छूकर तो जैसे गर्व की अनुभूति हुई। वह एहसास अपने आप में अनमोल है। हेलसिंकी ओलंपिक में उन्होंने जो ब्लेजर पहना था, उसे देखकर लगा जैसे वे हमारे इर्द-गिर्द ही कहीं हैं।
हेलसिंकी से पहले उन्होंने आजादी के ठीक बाद 1948 के लंदन ओलंपिक में भाग लिया था। साढ़े पांच फीट की सामान्य कद-काठी का होने के बावजूद फ्लाइवेट कैटेगरी में छठा स्थान हासिल कर उन्होंने सबको चौंका दिया था। उन्हें उसका भी मेडल मिला था। ढेर सारे ट्रॉफी-मेडल से सजा ‘ओलंपिक निवास’ खेल और देश के प्रति उनके जुनून को दर्शाता है। कुश्ती उनके खून में रची-बसी थी। पांच भाइयों में सबसे छोटे खाशाबा के पिता दादासाहेब जाधव भी अपने समय के जाने-माने रेसलर थे।
गांव में चाहे जिससे बात कीजिए, वह बड़े गर्व के साथ अपने ‘खाशाबा दादासाहेब’ की उपलब्धियां बताएगा। उनके साथ समय बिता चुके 73 साल के दौलतराम कहते हैं, “उनका सपना था कि गांव से और बड़े खिलाड़ी तैयार हों जो देश के लिए ओलंपिक मेडल लाएं। हर गांव में एक अखाड़ा या ट्रेनिंग सेंटर हो, कोच हो, जिससे युवा तैयार हो सकें।”
51 साल के रंजीत जाधव बताते हैं, “जब पिताजी का निधन हुआ, मैं सिर्फ 13 साल का था। तब मुझे यह एहसास नहीं था कि वे इतने खास और महान इंसान थे। बड़ा हुआ तो उनकी उपलब्धि का महत्व समझा और उनके सम्मान के लिए लगातार प्रयास करता रहा।”
बकौल रंजीत, मां ने बताया कि पिता बेहद सरल और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उन्हें न तो अपनी उपलब्धि पर कोई घमंड था, न ही इसे लेकर किसी से कुछ मांगना चाहते थे। उनका एक ही सपना था कि रेसलिंग के लिए अपने गांव, राज्य और देश से युवाओं को तैयार करें जो देश के लिए और मेडल ला सकें। उनके सपने को रंजीत पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी जीवनी पर फिल्म बन रही है, जिसके जरिए वे पिता का संघर्ष और उनकी उपलब्धियां दिखाना चाहते हैं।
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